भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बे-कटा खेत / निकअलाई निक्रासफ़ / हरिवंशराय बच्चन

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बीत चला है पतझड़, चिड़ियाँ चली गई हैं
गर्म प्रदेशों को; वन की डालें नंगी हैं;
पड़ा हुआ मैदान सपाट; खड़ी है अब भी
एक खेत में फ़सल, अकेले एक खेत में।

इसे देखकर मैं उदास होता,
विचार में पड़ जाता हूँ —
निश्चय बालें इसकी आपस में काना-फूसी करती हैं :
"यह पतझड़ की हवा, कि इसके कर्कश स्वर से कान फट गए ।"
"ऊब गई मैं बार-बार धरती के ऊपर शीश झुकाते
और गिराते और मिलाते मिट्टी में मोती से दाने ।"
"ये घोड़े जंगली हमें भारी टापों से खूँद-कुचलकर चल देते हैं !"
"ये खरगोश चलाते अपने पंजे हम पर !"
"होश उड़ानेवाले सर्द हवा के झटके !"
"जो भी पक्षी आता अपनी चोंच मारकर दाने चार गिरा लेता है ।"
"भला आदमी कहाँ रह गया ?"
"बात हुई क्या ?"
"निकली सबसे बुरी फ़सल क्या इसी खेत की ?"
"उगी, बढ़ी, दाने लाई — क्या कमी रह गई ?"
"ऐसी कोई बात नहीं है !"
"सबसे अच्छी फ़सल हमीं हैं ।"
"कितने पहले हम बालें भर गईं, झुक गया डण्ठल-डण्ठल !"
"इसीलिए क्या उसने धरती जोती-बोई
उपज हमारी पतझड़ की झंझा में बिखरे ?"

इन प्रश्नों का दर्द-भरा उत्तर लेकर के
गर्व-भरे दो झोंके आए :

"काम तुम्हारा करनेवाला चला गया अब ।
खेत जोतते-बोते उसने कब जाना था,
वक़्त काटने का आएगा, वह न रहेगा ।
अब वह खा-पी नहीं सकेगा — उलटे, कीड़े
उसकी छाती को खा-खाकर चलनी करते,
वह मुँह खोल नहीं पाता है ।
और बनी थी जिन हाथों से क्यारी-क्यारी
अब वे सूख हुए हैं लकड़ी ।"

"आँखों पर ऐसी झिल्ली है, देख न पातीं ।
उसकी वाणी, जो उसके अवसादों को मुखरित करती थी,
मूक हो गई ।
जो हलवाहा हल का हत्था कसकर थामे
खेत जोतते सोचा करता,
और सोचते जोता करता,
दबा हुआ मिट्टी में सड़ता !"

अँग्रेज़ी से अनुवाद : हरिवंशराय बच्चन

और अब यह कविता मूल रूसी भाषा में पढ़ें
             Николай Некрасов


1851 г.
</poem