यारियाँ / ऋचा जैन
एक बाग़ लगाया है-दोस्ती का
यारियाँ उगाई हैं उसमें
वो जो कोने में बेधड़क, बेपरवाह अपनी जड़ें सर पर उठाए बावला बरगद खड़ा है-
लंगोटिया यारी है वह मेरी
कई पतगें मेरे लिए लूटी हैं उसनें
शायद, अब भी किसी शाख़ पर माँझा लिपटा हो कहीं
बारिशों में मेरे संग भीगा है,
बसंत में संग झूला है
मेरे बचपन से वाक़िफ़ है ये
आज भी कभी डर लगे तो चिपक जाता हूँ-उसके तने से
अपनी जड़ों से सहला देता है मुझे
मेरा लंगोटिया यार
एक आम से यारी है, पर है बड़ी मीठी और ख़ास
ये उस वक़्त की यारी है जब सपने और खेल बड़े सरल हुआ करते थे
वो गुठलियों से गुड्डे-गुड़िया बनाना, उनकी शादी रचाना, आम की यारी में वह सादगी आज भी है हर गरमी फलों से लदा वह मेरा इंतज़ार करता है
एक ज़िद्दी यारी है-पीपल से
ज़िद-सीखने की
मिट्टी ना मिले तो पत्थरों से भी निकल आता था वो
अब हर एक पत्ता जैसे सैकड़ों किताबों को समेटे बैठा हो
कितना कुछ रहता है उसके पास-सीखने को
आज भी उसके कुछ पत्ते मेरी डायरी के पन्नों को चुपके से भर देते हैं।
मेरा ज़िद्दी यार
एक खट्टी यारी है-इमली से
दो चार बार उछलने पर हाथ आती थी
आज भी यही हाल है
पर स्वाद ऐसा निराला की बीज भी मुँह से निकाला नहीं जाता
बचपन के खेल कभी खट्टी यारियों के बिना पूरे हुए हैं भला
एक नुकीली यारी भी कर रखी है-बबूल से
उँगलियों के पोरों पर चुभे काटें समय-समय पर उभर कर याद दिला जाते हैं
कि बाग़ बिना काटों के मुमकिन नहीं
कुछ ख़ुशबूदार यारियाँ हैं-रजनीगंधा, चमेली और मोगरे से
जो रात 9 बजे चाय के प्यालों के संग जो महकना शुरू होती थीं,
तो देर रात तक ठहाकों की ख़ुशबू को
गली के आख़िर तक पहुँचा कर ही थमती थीं-
हर रात महकती हैं, वह यारियाँ मेरे ज़हन में
कुछ बड़ी दिलचस्प यारियाँ हैं, जो हवा के झोंकों से उड़ के आयी हैं-फ़ेसबुक और व्हाट्सऐप की
बाक़ायदा फल फूल रही हैं-अज़ीज़ ये भी हैं, मेरे बाग़ की जो हैं अब
कुछ यारियाँ गए बरस बोई थीं, उनपे कोपलें फूट आयी हैं
नई नवेली नाज़ुक यारियाँ-बड़ा वक़्त, बड़ी देखभाल माँगती हैं ये, अभी छोटी जो हैं
कुछ और हैं, जो इस बरस बोनी हैं।