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नई गिनती / रणजीत
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एक दो तीन
अपने सदियों से खोये हक़ अब हम लेंगे छीन
दो तीन चार
नहीं सहेगी अब मानवता खून का यह व्यापार
तीन चार पाँच
समता के आदर्शों पर नहीं आने देंगे आँच
चार पाँच छह
ऊँच-नीच की ये दीवारें एक दिन जाएँगी ढह
पाँच छह सात
थोड़े दिन की है मेहमान यह घोर अँधेरी रात
छह सात आठ
सड़े समाजी ढाँचे को अब मार गया है काठ
सात आठ नौ
जलती रहे हमेशा अपने इन्क़लाब की लौ
आठ नौ दस
चाँदी के अज़गर अब हमको नहीं पाएँगे डस।