भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रात्रि में नदी / अम्बर रंजना पाण्डेय
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:15, 15 अगस्त 2023 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अम्बर रंजना पाण्डेय |अनुवादक= |सं...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
नदी कभी सोती नहीं, रातभर भी वैसी ही बहती है
जैसे दिनभर, जब तक प्राण है हृदय धड़कता है
जब तक जल जागता रहता है
“अरे, यह तो वही पुल है जहाँ सन उन्नीस सौ निन्यानवे में
कमल बस दुर्घटना में गया था। बस डूबी, सत्तर में से
बस सात बचे थे” — पुरुष बड़बड़ाता है । माँ कुछ कहती नहीं ।
कलदार फेंकती है जलधार में ।
“आज होता तो पूरे छत्तीस का होता” — पुरुष कहता है ।
सब गतिशील है — नदी, काल, वाहन, भावना ।
केवल एक भ्रमर स्तम्भित होकर सुनता है दम्पत्ति की बात
नदी कभी
सोती नहीं ।