भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पूस की एक स्याह रात / रंजना जायसवाल

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:15, 13 सितम्बर 2024 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रंजना जायसवाल |अनुवादक= |संग्रह= }} {...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पूस की स्याह रात में
टपकता हुआ आसमान
टिक जाता है
ठंड से ठिठुरती
अलसाई मखमली दूब पर
लरजता, इठलाता,
दम्भ से भर जाता अपनी क़िस्मत पर
नहीं जानता अपना भविष्य
कभी-कभी रात के अंधेरे
उतने भयावह नहीं होते
जितने कि दिन के उजले उजास
हर रोशनी ज़िन्दगी भर दे
यह ज़रूरी तो नहीं
वह यह जानता नहीं
कि रौशनी की एक किरण
मिटा देगी उसके अस्तित्व को
जैसे जीवनदायिनी नदिया भी
डुबो देती हैं किनारों को