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बसंत काल / संतोष श्रीवास्तव

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एक बसंत
बचपन की जेब में हंसता
दौड़ते थे तितलियों के पीछे
अच्छी लगती थीं बेर तोड़ती
उंगलियों की खरोंचे
सूंघते थे बौर को
हथेली पर रगड़
पा लेते थे गारंटी
स्वस्थ रहने की


एक बसंत
यौवन की डायरी में शर्माता
वासंती नभ को छूने को आतुर
सपनों संग दौड़ लगाता
प्यार की धूप-छाँव से
पोर-पोर गरमाता
होता था रतजगा
पूरे बसंत

एक बसंत
दहलीज से झाँकता
करता गुहार ,आने दो अंदर
मत सोचो
जीवन की संध्या को
सहला लो
डायरी के पन्नों में दबे
अहसासों को
भीग जाओ मुझमें
आता रहूँगा हर बरस