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प्रतीक्षा / संतोष श्रीवास्तव

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स्नेह के झरने से
अमृत जल पी
मुंदी पलकों को खोल
वह तृप्त हो आगे बढ़ा

निरंतर धूप, बारिश
चुभती शीत में चलने से
शिथिल , क्लांत हुए
मन को ,बदन को
देती रही सुकून, छांव
अपनी छाया से
कि मिलता रहा
दिलासाओं का
छलकता पारावार
निरंतर संग संग

वह एक रूप से
अनेक रूपों में विभाजित हो
पितृ ऋण से मुक्त हुआ
विभाजन के इस दौर में
उसके कंधे से लगा रहा
दृढ़ मज़बूत कंधा

उसकी चिंताओं, दुश्वारियों को
मिलता रहा राहत का मलहम
सुकून का फाहा
उसके बिल्कुल नज़दीक ही
विस्तृत आंचल का

जिंदगी की संध्या बेला में
अशक्त, उसके संग
निरंतर बना रहा
एक समर्पित साया
फिर भी वह नहीं
समझ पाया स्त्री को!