भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वापस-1 / अरुण कमल

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:19, 19 दिसम्बर 2008 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अरुण कमल |संग्रह= }} <Poem> जैसे रो-धो कर चुप हो हथ मुँ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


जैसे रो-धो कर चुप हो हथ मुँह धो
अंतिम हिचकी भर
वापस चूल्हे के पास लौटती है नई वधू
भाई के जाने के बाद

वैसे ही लौटो तुम भी
बहुत हुआ बहुत रोए-गाए
अब साँझ हो रही है
बत्ती जलाओ और शुरू करो फिर वही पाठ
वहीं जहाँ छोड़ा था कल।