भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बार-बार / ज्ञानेन्द्रपति
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:39, 25 दिसम्बर 2008 का अवतरण
बार-बार
तुम ख़ुद को
सिक्त करने झुकते हो
और रिक्त करके ही उठते हो ।