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लोर्का / श्रीनिवास श्रीकांत

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लोर्का/माफ करना

एक पूरी सदी गुजर जाने के बाद

लिख रहा हूँ तुम्हारे नाम

यह स्मृति-गीत


तुम थे सच्चे इस्पानी

भाषा के मँजे हुए कलार

शब्द-संगीत के मास्टर

एण्डेलूसियाई लोक की आत्मा


अपने मुल्क की श्रुतियों को

था तुमने अपनी लिरिक में उतारा

चाहे हो वह 'खूनी विवाह

अथवा 'मोची की अनोखी बीवी’

'चौराहे की गाथा’ हो

या हो संगतरों का सुन्दर बागीचा

उनमें थे तुम्हारे देहात के लोग

इन्सानियत के रंग में रंगे चरित्र

सार्वभौमिक बिम्ब

प्रकृति की सँवराहट


'इस्पानियत

सर्वोत्तम कलात्मक रूप है

पृथ्वी पर

तुमने यह सिद्घ किया

अपनी भाषाई तहजीब से


लोर्का/तुम श्रमिकों, दुर्बलों

किसानों के लिये लड़े

एक तानाशाह की छाया में

तुमने लड़ा

स्पेन का नागरिक युद्घ भी

और अन्त में मरे

एक जाँबाज़ शहीद की मौत।

तुम्हारे देश की मिट्टी

सचमुच कवितामय है

आज भी तुम्हारा

अनभोगा नॉस्टेल्जिया

मुझमें ज़िन्दा है

मैं/तुम्हारी बाद की पीढ़ी का

एक बूढ़ा नुमायन्दा

करता हूँ आज फिर तुम्हें याद

तुम्हारी अनदेखी मातृभूमि की

सुगन्ध के साथ

वह सुगन्ध जो महकती है

आज भी तुम्हारी कविताओं में

रची-बसी

मेरे गाँव की वह

मटियाली घास में सिहरती

चीड़ की टहनियों में झूलती

शिशु झूलों की तरह


मैं जानता हूँ तुम उस स्पेन हो

जहाँ पाब्लो ने ज़मीन पर

घोड़े बनाना सीखा

और डाली ने उपत्यकाओं में

पिघलायी घडिय़ाँ

कराया स्पेस का

अतियथार्थमय वास्तु-दर्शन।

*(इस्पानी कवि फ्रेडरिको गार्सिया लोर्का)