बेरोज़गार पीढ़ी / श्रीनिवास श्रीकांत
बच्चों के पास काम नहीं
वे बन गये हैं अब बेरोजगार
सड़क छाप
पढ़े हैं वे ढेर सारी पोथियाँ
उठाये हैं इन्होंने
भारी भरकम बस्ते
कई साल
स्कूल जाते
स्कूल से आते
इन कमरतोड़
पहाड़ी चढ़ाइयों में
कोई भी कम्पनी सेठ नहीं होता
इन्हें काम पर लगाकर खुश
वे घर से चलते हैं
बाप का दिया
लड़कर लिया जेब खर्च
और माँ की
संकल्पविकल्पों भरी
अपलक सान्त्वना
दिन भर वे
घूमते थकते हैं इधर-उधर
करते समय को ‘किल’
कुछ सीखते मार्शल आर्ट
बढ़ाते अपनी माँसपेशियाँ
कुछ लेते अभिनेता बनने के सपने
भारत के जनसमुद्र में
क्या तुम देख नहीं रहे
आ रहा है बेरोजगार पीढिय़ों का
एक भयंकर चक्रवात
जिनसे टूट रही है तट की दीवारें ?
एक दिन निश्चय ही ढहेंगी ये
हँसती-खेलती बस्तियाँ
छप्परों के जनपद
और अब
शायद, वे दिन दूर नहीं रहे
आबादी और उसके असंतुलित
बीजगणित के बीच
रुसवा हो रही है
एक पूरी की पूरी पीढ़ी
कुछ अकूट प्रतिभाएँ
सत्ता के गलियारों में
कर रहीं लगातार
अरण्यरोदन
जीविका अब बन गयी है
साँप-सीढ़ी का खेल
ओ, शासको
क्या तुममें से है
कोई ऐसा मुस्तफा कमाल
जो एक रात में ही
सुलझा सके यह बुझौवल?
हाँ, एक ही रात में
अपने न पलटने वाले
लौह ऐलानों से?