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कछार / स्वप्निल श्रीवास्तव

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कछार में उड़ते हैं बगुले

झुंड के झुंड

कछार में दूर-दूर तक

लहरा रहे हैं धान जड़हन के खेत


ताल-तल्लैया हैं कछार में

उनके ऊपर बोल रही है

टिटिहिरी


मजूरों के सिर पर बोझ है

उनके सिर के ऊपर

कलंगी की तरह झूल रही है

धान की बालें


यहीं कछार में मेरा घर है

जहाँ पहाड़ से आती है

चिड़ियाँ

और शहर से छुट्टी लेकर मैं


कछार में दिन-दहाड़े

पड़ती है डकैती

होते हैं कत्ल

हमेशा यहाँ देर से

पहुँचती है पुलिस