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दिनचर्या / केशव

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हर शाम
कॉफी हाउस में बैठकर
दोहराता हूँ जासूसनुमा किस्से
मैट्रीमोनियल पर
करता हूँ गंभीर बहसें

खाली जेब में घुसकर
दोसे की गँध
पिन की तरह चुभ जाती है
मामूली सी लालसा के फूलते गुब्बारे में

सामने टेबल पर मौजूद
युवती को
महसूसता हूँ चूहे की बगल में
और उत्तेजना की दरार में
कुलबुलाने लगता है एक अँग

देर से घर लौटने के लिए
नये मुखौटे की तलाश में
जीभ लपलपाती घूमती है
भीतर एक कैंची

एक बार फिर टटोलता हूँ
तली हुई मछली-से होंठ
और टेबल लैम्प पर झुका
करता हूँ इकट्ठा
दिन की कतरनें

कहीं कुछ बाकी नहीं होता
जिसे लेकर तुम्हारे लिए
कोई गीत लिख सकूँ दोस्त!