भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

झील की आँख / रेखा

Kavita Kosh से
प्रकाश बादल (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:12, 28 फ़रवरी 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रेखा |संग्रह=चिंदी-चिंदी सुख / रेखा }} <poem> झील की आ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

झील की आँख
देखती है जब
आकाश में अपने अक्स
आकाश तन जाता है
पुतलियों में
शीशा हो जाती है आँख

देखने को आकाश
अपने आर-पार
न जाने कब से
नदी हो रही है झील

पर्वतों की तरह घिर आए हैं
माँसल स्पर्श
झील
गहरे और गहरे डूब रही है
सदियों में नहीं आया
कोई तूफान
न आई कभी कोई बाढ़
एक


पूरा शहर
उगता रहा चुपचाप
किनारों पर

मंदिरों में गूँजी घंटियाँ
गलियों में सजे बाज़ार
झील पथराई-सी
उतारती रही आरती
डबडबाई आँखों में
डूबता रहा तारों भरा आकाश

कोंपल-कोंपल फूटा
पत्ता-पत्ता झड़ गया
आकर बसंत
धार-धार उतरी
सीने में बरसात
सिहर-सिहर ठिठुरा
हेमंत पूनम का चाँद

झील की आँख अपलक
ताकती रही अम्बर
दोहराती रही निरंतर
यही एक सवाल
जब भी देखती हूँ तुम में
क्यों देख नहीं पाती
अपना कालजयी चेहरा
क्यों लौटा देते हो तुम
हर बार अपने नक्स-अपने अक्स

सुनो मेरे पुनर्नवा!
तुम तुम देख सको मुझमें
अपना नित नवीन चेहरा
क्या इसीलिये
मुझे बताना होगा झील?