भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आख़िर में / ब्रज श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:42, 23 मार्च 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ब्रज श्रीवास्तव |संग्रह= }} <Poem> केवल आवाज़ ही उठाई...)
केवल आवाज़ ही उठाई थी
यह मानकर कि ये हमारा हक़ है
यह मानकर कि हम आदमी हैं
और बिना काम के नहीं जुटा सकते दाल-रोटी
नहीं जी सकते बिना कुछ किए
यह सोचकर कि हम एक
बड़े लोकतन्त्र के बाशिन्दे हैं
एक होकर उठाई थी हमने आवाज़
इस आस में कि हमारी आख़िरी कोशिश
लाएगी रंग
कुछ दिनों में फिर जाने लगेंगे हमारे बच्चे स्कूल
आवाज़ ही तो उठाई थी हमने केवल
और ज़ालिमों ने तो धरती उठा ली सिर पर
वे हो चले थे सरफिरे
उन्हें नहीं मालूम
जब वे आएंगे ज़ालिमों की गिरफ़्त में
उन्हें भी सहारा लेना होगा
उठती हुई आवाज़ का
उन्हें भी ज़रूरी लगेगा
आख़िर में
अपनी आवाज़ को ही उठाना