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आषाढ़! / कविता वाचक्नवी
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आषाढ़!
जंगल पूरा
उग आया है
बरसों-बरस
तपी
माटी पर
और मरुत् में
भीगा-भीगा
गीलापन है
सजी सलोनी
मही हुमड़कर
छाया के आँचल
ढकती है
और
हरित-हृद्
पलकों की पाँखों पर
प्रतिपल
कण-कण का विस्तार.....
विविध-विध
माप रहा है।
गंध गिलहरी
गलबहियाँ
गुल्मों को डाले।