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देवदार / कविता वाचक्नवी
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देवदार
रहस्य के सारे देवदार
काट डाले हैं
बटोही ने।
बाँहें फैलाए जो हिम झेलते थे,
पी लेते थे कोहरा
छान देते थे धूप
धुआँ समेटते थे
दीखती थी धरित्री - सौंदर्यमयी।
अब न देवदारी ध्वजाएँ है
न
आकाश से झरती बर्फ़ झेलने वाली बाँहें।
अधकटे देवदारों के ठूँठ
उग आए हैं छाती पर
और
मैं दिन गिनती हूँ
देवदारों के फिर उठ खड़ा होकर
फैलने के।
देखूँ........
कब आएँ वे दिन
आकंठ प्रतीक्षा है..........।