पीढ़ियाँ / कविता वाचक्नवी
पीढ़ियाँ
चलना सीखते ही
पहना जाती है, नानी
घुँघरुओं की पायल
रुनुन...झुनुन...टुनुन...नुनुन
गूँजता है.....दिन भर.....
घर के भीतर, ठंडे सलेटी फर्श पर
शीघ्रता से..........
और शीघ्रता से........
बढ़ने लगीं - पायल बँधी गोलाइयाँ
छोटी हो गईं - पायलें
और कसने लगीं,
उतार
खूब दौड़ लगाई
पत्थर बिछी गली की,
तितलियों के पर पकड़ने
बादलों के श्वेत पद छूने
टिमटिमाते तारे
झोली में बटोर लेने को।
इस दौड़ में छूट गई, पत्थर वाली गली।
काली सड़कों तक आते-आते
न रंगीली तितलियाँ थीं
न बादलों के श्वेत पग,
सब ओर एक-सी
काली कोलतारी सड़कें
एक-सी बस्तियाँ..........
एक-से लोग............।
भूल जाती है रास्ता.......।
पूछती है भीड़, घर का पता
पर.....
सलेटी फ़र्श
पत्थर की गली
चौबारे का कमरा
याद है इतना भर उसे,
नाम-ठिकाना
कभी न जाना
और भरी भीड़ में
हिचकियाँ लेकर
लगती है रोने........।
क्यों हो गई पायल छोटी
क्यों पुरतीं नहीं
टखनों की गोलाइयाँ अब
क्यों सारी सड़कें / बस्तियाँ / मकान
है एक-से
और क्यों नहीं
किसी तरह
लौट सकती
मैं?
ना..........नी........!!