भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बिटियाएँ / कविता वाचक्नवी
Kavita Kosh से
चंद्र मौलेश्वर (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:55, 19 जून 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कविता वाचक्नवी }} <poem> '''बिटियाएँ''' पिता! अभी जीना च...)
बिटियाएँ
पिता!
अभी जीना चाहती थीं हम
यह क्या किया.......
हमारी अर्थियाँ उठवा दीं!
अपनी विरक्ति के निभाव की
सारी पगबाधाएँ
हटवा दीं.....!!
अब कैसे तो आएँ
तुम्हारे पास?
अर्थियों उठे लोग
[दीख पडे़ तो]
प्रेत कहलाते हैं
‘भूत’ हो जाते हैं
बहुत सताते हैं।
हम है - भूत
-अतीत
समय के
वर्तमान में वर्जित.....
विडंबनाएँ.......
बिटियाएँ........।