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विदा / कविता वाचक्नवी
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विदा
आज दादी, चाचियों, बहना, बुआ ने
चावलों से, धान से,
भर थाल
मेरे सामने ला
कर दिया है,
मुट्ठियाँ भर कर
जरा कुछ जोर से
पीछे बिखेरो
और पीछे मुड़, प्रिये पुत्री!
नहीं देखो,
पिता बोले अलक्षित।
बाँह ऊपर को उठा दोनों
रची मेहंदी हथेली से
हाथ भर-भर दूर तक
छिटका दिया है
कुछ चचेरे औ’ ममेरे वीर मेरे
झोलियों में भर रहे
वे धान-दाने
भीड़ में कुहराम, आँसू, सिसकियाँ हैं
आँसुओं से पाग कर
छितरा दिए दाने पिता!
आँगन तुम्हारे
रोपना मत
सौंप कर
मैं जा रही हूँ...........।