अमरनाथ साहिर
कुछ फुटकर शे’र
होने को तो है अब भी वही हुस्न, वही इश्क़।
जो हर्फ़े-ग़लत होके मिटा नक़्शे-वफ़ा था॥
पिन्हाँ नज़र से पर्द-ए-दिल में रहा वोह शोख़।
क्या इम्तयाज़ हो मुझे हिज्रो-विसाल का॥
ऐ परीरू! तेरे दीवाने का ईमाँ क्या है।
इक निगाहे-ग़लत अन्दाज़ पै क़ुर्बां होना॥
जुनूने इश्क़ में कब तन-बदन का होश रहता है।
बढ़ा जब जोशे-सौदा हमने सर को दर्दे-सर जाना॥
एक जज़्बा था अज़ल से गोशये-दिल में निहाँ।
इश्क़ को इस हुस्न के बाज़ार ने रुसवा किया॥
तमन्नाएं बर आई अपनी तर्केमुद्दआ होकर।
हुआ दिल बेमतमन्ना अब, रहा मतलब से क्या मतलब॥
देखकर आईना कहते हैं कि - "लासानी हूँ मैं"।
आईना देता है उनकी लनतरानी का जवाब॥
पा लिया आपको अब कोई तमन्ना न रही।
बेतलब मुझको जो मिलना था मिला आपसे आप॥
गुम कर दिया है आलमे-हस्ती में होश को।
हर इक से पूछता हूँ कि ‘साहिर’ कहाँ है आज।
दामाने-यार मरके भी छूटा न हाथ से।
उट्ठे हैं ख़ाक होके सरे रहगुज़र से हम॥
सदा-ए-वस्ल बामे-अर्श से आती है कानों में--।
"मुहब्बत के मज़े इस दार पर चढ़कर निकलते हैं"।