भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गंगा / विष्णु विराट

Kavita Kosh से
पूर्णिमा वर्मन (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 10:59, 17 सितम्बर 2006 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कवि: विष्णु विराट

~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~

हिमालय का सतत प्रसरित प्रवाहित मान है गंगा।

अमित आदर्श आर्यावर्त की पहिचान है गंगा॥


चरण प्रच्छालती हरि के परम पावन पयस्विनि बन,

अमर वैदकि ऋचाओं का अनस्वर-गान है गंगा॥


उतर आई शिखर कैलाश से, भागीरथी बनकर,

धरा से स्वर्ग तक आध्यात्म्य का उत्थान है गंगा॥


वनों में घाटियों में नाचती, अटखेलियां करती,

तृषा को तृप्ति है अभिशप्ति को वरदान है गंगा॥


हहर कर यह जहां से निकल जाती, तीर्थ बन जाते,

बनाती देवता नर को, सुधामय पान है गंगा॥


गिरी अमरावती से, शीश शंकर के निबद्धित हो,

भगीरथ की तपस्या का सतत सम्मान है गंगा॥


गरजते सिंधु के उर पर, विलोडित वक्ष अपने कर

अनत उद्वेलिता, अनुराग का अभियान है गंगा॥


नहाते ही अघाते पाप पुंजों को विनष्टे ये,

विषम कलिकाल में भी अमृत रस का पान है गंगा॥