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पांचों घी में / नईम
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पूर्णिमा वर्मन (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 22:00, 17 सितम्बर 2006 का अवतरण
लेखक: नईम
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उनकी
टेढ़ी या सीधी हों,
लेकिन हैं पांचों ही घी में
रहे छीजते अपने ही ग्रह,
और नखत ये धीमें धीमें
जिसको जो भी मिला ले उड़े, खुरपी टेढ़े बेंट आ जुड़े
होना था जिनको आधा वो एक रात में हुए डेवढ़े
होने को-
क्या शेष रह गया
कर लो जो भी आये जी में
मान-मूल्य सब हुये तिरोहित, सब ही अपने हुये पुरोहित
पन्नों में ही लिखे रह गये, शुभ की सायत और महूरत
धरे रह गये
मयनोशी के
अदब-कायदे और करीने
अपने राम पड़े सांसत में, कहां रहें अब, किस भारत में?
एक एक से बढ़कर प्राणी, जगह पा गये हैं गारद में
फर्क नहीं-
कर पाता हूं मैं,
अपने लेखे ग़लत सही में
उनकी क्या पूछो हो साधो!
जिनकी हैं पांचों ही घी में।