भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
व्यर्थ गर्व / वियोगी हरि
Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:22, 7 अगस्त 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=वियोगी हरि }} <poem>अहे गरब कत करत तूँ खरब पाय अधिकार...)
अहे गरब कत करत तूँ खरब पाय अधिकार।
रहे न जग दसकंध-से दिग्विजयी जुगचार॥
कनक-पुरी जब लंक-सी झुरी अछत दसकंध।
तुव झोपरियाँ काँस की कौन पूँछिहै अंध॥