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बाढ़ / श्रीनिवास श्रीकांत

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रोको रोको
यह उमड़ती हुई बाढ़
मगर कौन रोके
सभी तो हैं
हवाओं के असमर्थ झोंके
उड़ाते हैं जो
विवर्जित खिड़कियों के पर्दे
उछल-उछल झाँकते हैं
किशोरों से
हमारे हवाघरों में

मैं तो चाहता हूँ लग जाये
बस्तियों के हर द्वार पर ताला
और गलियों से भाग जाए उजाला

ओ आधुनिक प्रभु
मुझे नहीं चाहिए तुम्हारा
जुगनुओं जड़ा,तितलियों कढ़ा
बेलबूटेदार शहर
कि जहां रात के हर तीसरे पहर
भर जाता है मेरा घर
भूतहे इरादों से

और मैं एक तट छूटा
आश्रयहीन देह-पोत
अकेले समन्दर में
भटकता हूँ इधर उधर
दिशाहीन

अरे ओ
सुनते हो
ठंडा हो गया मेरा बाप
जाने क्या हो गया
मेरी मां को
पड़ी है शायद आँखों पर उसके
मैथुलीन युगल सर्पों की छाया
मैं जाने अंधेरे में
कितनी बार चिल्लाया
कोई भी लेकिन आगे नहीं आया

पथरा गया मेरा बाप
पगला गई मेरी माँ
डूब गया मेरा घर

उमड़ती रही आँखों में
वह अंतहीन बाढ़