भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सिलसिला / सरोज परमार
Kavita Kosh से
प्रकाश बादल (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:49, 22 अगस्त 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सरोज परमार |संग्रह=समय से भिड़ने के लिये / सरोज प...)
मेरे और तुम्हारे मिलन का सिलसिला
यहीं तो खत्म नहीं होगा
हर प्रलय के बाद हम
उगेंगे मनु और श्रद्धा की तरह
फिर सिरजेंगे संस्कृतिओं के अंडे
जिनसे निकलेंगे सभ्यताओं के चूज़े
जो गाएँगे विरह मिलन के गीत
जो चहकेंगे,महकेंगे फिर बहकेंगे
फिर ईड़ा का तर्कजाल घेरेगा बाहों में
फिर टुच्चापन झलकेगा
मछलियों में आदम की
फिर देखेगी श्रद्धा छले जाते विश्वास
होगी कुछ क्षण बदहवास
फिर जगेगा बल,आत्मविश्वास
फिर गाएगा कोई 'प्रसाद'
"नारी तुम केवल श्रद्धा हो
विश्वास रजत नग पग तल में
पीयूष स्रोत-सी बहा करो
जीवन के सुन्दर समतल में।"