भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

फिसल गए / सरोज परमार

Kavita Kosh से
प्रकाश बादल (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:10, 22 अगस्त 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सरोज परमार |संग्रह= घर सुख और आदमी / सरोज परमार }} [[C...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुम्हारे बलगई सीने पर हाथ फेरेते
वक्त के तहखाने को चीर कर
दूबिया अहसासों की गोद में
सिर रख देती हूँ।
सकून बेहद
पन्नों की झिलमिलाती कतार
हिदायतों से दूर
पाबन्दियों से अंजान
कहाँ गये वो पल?
उड़ गये बेमुरौव्वत!
अब तो तुम्हारी बलगमी छाती
मेरा थका माँदा झुर्रियों भरा
खुरदुरा हाथ ।
अब तो वो भी पल फिसल गए
जब रूह व जिस्म में
रिश्ते कायम करने का
सवाल हल करते करते
तुम नादिरशाह.........
मैं परकटे परिंदे सी
बेबसी असमंजस
कितना कुछ फिसल गया है
पकड़ूँ तो कैसे?
छुड़्यों के पत्तों पर पड़ी बूँद से
चमकते क्षण......फिसल गए
.................गए................
लो गए ही।