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आंगन हम / वीरेंद्र मिश्र

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फूल गिराते होंगे, हिला स्वप्न डाली होगे तुम ग्रह-ग्रह के रत्न, अंशुमाली

    आंगन हैं हम कि जहां रोशनी नहीं है

रासों की रात ओढ़ पीताम्बर चीवर होगे तुम शब्दों के मीठे वंशीधर

     मिट्टी ने, पर, वंशी-धुन सुनी नहीं है 

ओ रे ओ अभिमानी गीत, महलवाले! होगे तुम उत्सव की चहल-पहलवाले

   दीवाली गलियों  में तो  मनी नहीं है 

तुम जिन पर मसनद सिंहासन का जादू होगे तुम दर्शन के मनमौजी साधू

    पहने  हम  अश्रु, और  अरगनी नहीं है

सिर पर धर गठरी में मुरदा-सी पीढ़ी होगे जब चढ़ते तुम सीढ़ी पर सीढ़ी

   उस क्षण के लिए इंगित को तर्जनी नहीं है

किसी महाभारत के आधुनिक पुजारी! होगे तुम द्रोण, मठाधीश, धनुर्धारी

     अर्जुन की  एकलव्य से बनी नहीं है

रोज आत्महत्या की लाशें चिल्लातीं-- ’हम प्रभातफेरी की हैं मरण-प्रभाती’

    तुम-जैसी राका तो ओढ़नी नहीं है

दिशा-दिशा बिखरी हैं तिमिर-मिली किरनें अहरह वक्तव्य दिया गांव ने, नगर ने—

    चलनी से ज्योति अभी तक छनी नहीं है