भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कशिश ही ऐसी है कुछ मेरे दिल के छालों में / सुरेश चन्द्र शौक़
Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:09, 6 सितम्बर 2009 का अवतरण
कशिश ही ऐसी है कुछ मेरे दिल के छालों में
कि मेरी धूम मची है तबाह —हालों में
किसी भी बात को सोचूँ तो किसी भी पहलू से
तिरा ख़्याल ही उभरे मिरे ख़्यालों में
तिरे सुलूक<ref>व्यवहार</ref> का चाहा था तजज़िया करना<ref>विश्लेषण करना </ref>
तमाम उम्र मैं उलझा रहा सवालों में
तुम्हारे रूप की सजधज में कुछ कमी है अभी
दिल अपना टाँक न दूँ मैं तुम्हारे बालों में
तुझे तलाश—ए—सुकूँ है तो अपने दिल में ढूँढ
न मस्जिदों में मिलेगा न ये शिवालों में
हमें भी शौक़ मयस्सर<ref>उपलब्ध</ref> रही है ये नेमत
रहे हैं हम भी किसी के हसीं ख़्यालों में.
शब्दार्थ
<references/>