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किताबें / मनीष मिश्र
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हमारे सूखे दरकते जीवनाकाश को
गीला करती हैं किताबें
वे संजोती हैं इतिहास की सूख गई बेल
सुंदर उपमायें और
अंतहीन सपनों के प्रायदीप!
वे चुनती बटोरती हैं
आदि मंत्रो के स्वर-विन्यास
और हरीतिमा में भीगी रागिनी!
एक ऐसे समय में
जब सूख चुकी है हस्तलिपियाँ
और संवेदनाएँ
रंगों-गंधों की सूक्ष्म विवेचनायें!
ऐसे हाँफते, काँपते समय में
किताबे हमें
फिर-फिर लौटाती हैं
जोड़ती-गाँठती हैं
बिसरा दिए गए अक्षरों से
लिपि से
भाषा से
एक अदभुत जीवन से!