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पढ़ना / प्रेमरंजन अनिमेष
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पढ़ना चाहता तुम्हें
कहा मैंने
उतने ही पास
उतनी ही दूर से
जितने पर
पढ़े जाने वक़्त
होती है
क़िताब
ठीक है...
सौंप दिया उसने
ख़ुद के मेरे हाथों में
पढ़ते-पढ़ते
खो गया समझने में
सोचते-सोचते
जाने कब
भरम गई आँखें
सो गया
खुली किताब
सीने पर
उलट कर...।