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अन्तर / अजित कुमार
Kavita Kosh से
जो कल था
वही आज भी है
छल
सिर्फ़ बँधने के लिए
मन
उतना सरल नहीं रहा ।
वही मोर नाचे वन में,
उसी
पूरे संतुलन में,
पर
अधूरापन एक
जाने कहाँ
करकने लगा ।