खिड़कियाँ / अनूप सेठी
मैं एक बड़े ईमारती शहर की
एक छोटी ईमारत की
किसी एक मँज़िल के
किसी एक कोने में रहता हूँ
जैसे कई कोनों में कई लोग रहते हैं
जाते हुए कुछ नहीं देखता
दरवाज़ा अंदर से बंद करके
मैजिक आई में से देखता हूँ
कौन आता है कौन जाता है
जैसे कई लोग देखते होंगे
मैजिक आई में से
अपनी खिड़की से
सामने की ईमारतें देखता हूँ
खिड़कियां, रोशनी, लोगों की हरकतें
तस्वीरों के चौखटे और पर्दे
लोग भी देखते होंगे
सामने की ईमारतें
खिड़कियाँ, रोशनी, हरकतें
तस्वीरें और पर्दे
अपनी बत्ती बुझाकर देखता हूं
रोशन खिड़कियाँ और वही सब कुछ
जब सामने की बत्तियां बुझ जाती हैं
लोग भी देखते होंगे
खिड़कियों से
रोशन खिड़कियां और वही सब कुछ
खिड़की और मैजिक आई के दरम्यान
कुर्सी पर धँस कर चुपचाप
देखता हूँ कहाँ है रोशनी
कहाँ हरकत
कहाँ आवाज़
बड़े ईमारती शहर की
छोटी ईमारतों के
बंद होते दरवाज़े
खुलती खिड़कियाँ, सरकते पर्दे
कुर्सियों पर धँसे होंगे लोग भी चुपचाप
चाहता हूँ एक दिन
सामने की सीढ़ियों से
एक एक मँज़िल पर चढ़कर देखना
अपनी खिड़की, रोशनी
आखिर क्या देखते होंगे लोग
धक-धक दिल सूखते होंठ
पंहुच कर सामने
देखता हूं सिकोड़कर आँखें
खिड़कियाँ ही खिड़कियां
बड़े ईमारती शहर की
छोटी ईमारतों में
खिड़कियाँ, जँगले, रोशनी, दीवारें
अँधेरों में चमकती
ईमारतें
और ईमारतें
कहाँ है इन ईमारतों में कोई एक कोना
खिड़की
या कम से कम पर्दा
हुआ नहीं कभी जिसका रंग तक याद ।
(1988)