भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कोई / अरुण कमल
Kavita Kosh से
कोई भी तो नहीं
पर कोई है ज़रूर
जो मेरे बोलते चुप हो जाता है
पानी में घड़ा डुबोते जो आवाज़ हो रही है
वो आख़िर कहाँ से आ रही है
एक रोशनी जो मेरे ताकते धूर बन जाती है
कहीं कोई न था कोई भी
एक चिड़िया ढेले-सी गिरी आ रही थी
आसमान का पूरा बोझ लिए
हवा डोर की तरह लिपटती लटाई पर
पेड़ जैसे कोई गरारा रेशम का
लगा जैसे बारिश हो रही है बाहर
पर धूप थी इतनी
कि पुतलियाँ सिकुड़ गईं।