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मंझधार / शशि पाधा

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मौन का सागर अपार
मैं इस पार - तू उस पार।
कहीं तो रोके अहं का कोहरा,
कहीं दर्प की खड़ी दीवार

शब्दों की नैया को बाँधे
  खड़े रहे मंझधार।

न इस पार - न उस पार ।
मान की डाली झुकी नहीं
बहती धारा रुकी नहीं
कुंठायों के गहन भंवर में

छूट गई पतवार ।
  मैं इस पार - तुम उस पार ।

सुनो पवन का मुखरित गान
अवसादों का हो अवसान
संग ले गया स्वप्न सुनहले
मौन का पतझार

न इस पार - न उस पार।
  लहरें देती मौन निमंत्रण

संध्या का स्नेहिल अनुमोदन
अस्ताचल का सूरज कहता
खोलो मन के द्वार।
  न इस पार - न उस पार ।