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ठंड / इला प्रसाद
Kavita Kosh से
दरवाज़ा खोला
तो ठंड दरवाज़े पर,
बाँहें खोले -
आगे बढ़,
भेंटने को तैयार।
हवा घबराई-सी
इधर उधर पत्ते बुहारती,
ख़बरदार करती
घूम रही थी।
निकलूँ न निकलूँ का असमंजस फलाँग
मैं जैसे ही आई
ठंड के आगोश में
एक थप्पड़ लगा
झुँझलाई हुई हवा का -
"मना किया था न!"
और सूरज -
बादलों को भेद,
मुसकुरा उठा!