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युग-धनी / माखनलाल चतुर्वेदी

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युग-धनी, निश्वल खड़ा रह!
जब तुम्हारा मान, प्राणों
तक चढ़ा, युग प्राण लेकर,
यज्ञ-वेदी फल उठी जब
अग्नि के अभिमान लेकर।
आज जागा, कोटि कण्ठों का--
बटोही मान लेकर,
ढूँढने आ गई बन्धन-मुक्ति--
पथ-पहचान लेकर।
जब कि ऊर्मि उठी, हृदय-हृद
मस्त होकर लहलहाया,
रात जाने से बहुत पहले
सबेरा कसमसाया।
किन्तु हम भूले तुझे ही
जब हमें रण ज्वार आया,
एक हमने शंख फूँका।
एक हमने गीत गाया।
गान तेरा है कि बस अभिमान मेरा,
रूप तेरा है कि है दृग-दान मेरा,
तू महान प्रहार ही सह,
युग-धनी, निश्चल खड़ा रह।

रचनाकाल: नागपुर-१९४०