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माहिया / प्राण शर्मा
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इसकी परिभाषा से
हम अनजान रहे
जीवन की भाषा से
सब कुछ पढ़कर देखा
पढ़ न सके लेकिन
जीवन की हम रेखा
आँखों में पानी है
हर इक प्राणी की
इक राम कहानी है
भावुकता में खोना
चलता आया है
मन का रोना-धोना
उड़ते गिर जाता है
कागज़ का पंछी
कुछ पल ही भाता है
नभ के बेशर्मी से
सड़कें पिघली हैं
सूरज की गर्मी से
कुछ ऐसा लगा झटका
टूट गया पल में
मिट्टी का इक मटका
हर बार नहीं मिलती
भीख भिखारी को
हर द्वार नहीं मिलती
सागर में सीप न हो
यह तो नहीं मुमकिन
मंदिर में दीप न हो
हर कतरा पानी है
समझो तो जानो
हर शब्द कहानी है
क्यों मुंह पे ताला है
चुप---चुप है राही
क्या देश- निकाला है
हर बार नहीं करते
अपनों का न्यौता
इनकार नहीं करते