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वासंती नूपुर / कविता वाचक्नवी

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वासंती नूपुर


मध्य एशिया के व्यापार मार्ग से
जाती हैं अब भी
बंजारों की टोलियाँ
रेत और धूल के बगूले उडा़तीं
छतनार किसी पेड़ तले

                    चौका सजातीं।


सुरज अपनी लाल देग ले
छिप जाता है चुपके-चुपके
किसी ओट में
हवाओं में दौड़ते हैं
बादलों के छौने
पेड़ों पर पत्ते उचारते हैं
स्वस्तिवाचन के मंत्र,
मेहँदियों के वासंती नूपुर
छीन ले जाते हैं सँपोले
अभागी आशाएँ
गुदड़ी में हीरे की कनी छिपाए
रेत के कच्चे घरौंदों के द्वार पर
बचाती है नागफणियाँ,
इन कहानियों के
रच डालती हैं गीत,
आनेवाली दस-बीस पीढ़ियाँ
गाती रहेंगी सिर जोड़कर जिन्हें।