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अहा, वे दिन भी क्या दिन थे!
जब मैं भी था पूरा मनुष्य सा...
दसों दिशाओं को देखने वाली आखें
हाथी सी जंघाएँ
वृषभ से कंधे
मज़बूत सुदर्शन शरीर...
कान की जगह कान
हाथ की जगह हाथ
पाँवों की जगह पाँव
और मस्तिस्क की जगह मस्तिस्क.
और एक ये दिन
जब मेरे ही हाथ, घूँसे ताने है मेरे ही शरीर पर
पाँव लात मार रहे हैं, मस्तिस्क को
कान नहीं सुन रहे, मुँह के बोले शब्द
दिमाग नहीं समझ रहा, आँखों के देखे दृश्य
अँगुलियों ने पकड़ बंद कर ली है नाक,
सूंघने नहीं दे रहीं
दाँतों ने कैद कर ली है जीभ,
चखने नहीं दे रहे
सब अलग अलग हो रहे हैं
शरीर से गिर रहे हैं, एक एक कर
और बनाने लगे हैं अपने अलग अलग शरीर...
हाथों, पाँवों...
यहाँ तक की सिर के बालों ने भी
गिर कर बना लिए हैं, अपने अलग शरीर
और रख लिए हैं, अलग-अलग,
बाज़ार मैं बेचने को रखे मांस के हिस्सों की तरह....
अब पाँवों के पास आखें नहीं है
आँखों के पास मस्तिष्क नहीं है
और मस्तिष्क के पास हाथ नहीं..
किसी के पास अपने अलावा कुछ नहीं....
मैं, 'परिवार' कहते थे जिसे
टुकड़े टुकड़े हो गया हूँ।
मैं देख रहा हूँ
वे परेशान हो गए हैं, आ रहे हैं वापस
मैं हाथ पसारे बैठा हूँ
क्या मैं सपना देख रहा हूँ?
मूल कुमाउनी पाठ
अहा उं दिन
जब छियूं मैं लै अद्बिथर नैं पुर्रे मैंस जस,
दस दिस चांड़ी ऑख
हा्तिक जा् जंगा्ड़
बहौड़ा्क जा् का्न
मजबूत सुदर्शन आंग।
काना्क जा्ग कान
हाता्क जा्ग हात
खुटोंक जा्ग खुट
अर कपावा्क जाग कपाव।
और एक यं दिन !
जब म्यारै हात घम्कूणईं म्यारै ऑग कैं
खुट लत्यूणयीं कपाव कैं
कान न सुणणा्य, जि मूंख बलांणौ
डिमाग न समझणय, जि आंख द्यखणौ
आंगुल नांक बुजि लि रईं,
सुंगण न दिणा्य,
दान्तौल जेल बंणि गोठ्यै हालौ जिबौड़
चाखण न दिणा्य
सब उड़ंण चांणयीं
सब स्वींड़ द्यखणईं-सतरंग स्वींड़
उ लै स्वींड़ द्यखणौं, उ लै अर...उ लै...
और उं उड़ि ग्ये...यीं
म्या्र लिजी करि ग्येयीं-सतझड़ि
हात-खुट, ऑख-कान....
सब झड़नईं-एक-एक कै
इकल-इकलै !
फिरि,
हातोंल बने हालौ आपंण अलग ऑग!
खुटौंल अलग,
ख्वरा्क बाव लै अलग-अलग झड़ि
बणूणयीं आपंण अलग-अलग ऑग,
सब्नैलि अलग-अलग छजै हाली आपंण ऑग
बजार में बिचाड़ हुं धरी शिकारा्क बॉट जा.
आब खुटों थें ऑख न्हैतन
आखन थें डिमाग न्है
अर डिमागथें ऑग न्है
कै थें आपंण अलावा क्ये न्है
मैं, कुन्ब कूंछी जकैं
आब है/रै गोयूं कुञ्ज-कुञ्ज
आब आज, अर रोजै, हर रोजै
मैं द्यखणयूं-
उं दिक् है ग्येयीं-इकलू बानर है बेर
उं उंणयीं वापिस....
मैं हात पसारि भै रयूं
कि मैं स्वींण द्यखणयूं ....?