भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पतझड़-1 / एकांत श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
Pradeep Jilwane (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:29, 1 मई 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=एकांत श्रीवास्तव |संग्रह=अन्न हैं मेरे शब्द / ए…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हम दोनों
धरती के अलग-अलग छोरों पर
अलग-अलग अंधेरे में
देखते हैं पीले पत्‍तों का झड़ना

झड़ने से पहले
उनका पीला पड़ना
उससे भी पहले उनका गृहस्‍थ से
वानप्रस्‍थ के लिए तैयार होना

सुनो! तुम्‍हारे पतझड़ के पत्‍ते
उड़कर आ गये हैं मेरे पतझड़ में
क्‍या मेरे पतझड़ के पत्‍ते भी
तुम्‍हारे पतझड़ में
भटक जाते हैं कभी-कभी?

क्‍या तुम पहचान सकते हो
कि ये तुम्‍हारे पतझड़ के पत्‍ते नहीं हैं?

सुनो! सिर्फ हम ही नहीं हैं
कितने हैं हमारी तरह
अपने-अपने वसन्‍त से निर्वासित
कितने हैं जो देख रहे हैं
सिर्फ पीले पत्‍तों का झड़ना

अलग कहां हैं हमारे पतझड़
अलग कहां हैं हमारे अंधेरे
अलग कहां है हम सबके पतझड़ों में
झड़ते पीले पत्‍तों की मार्मिक पुकार
वसन्‍त! ओ वसन्‍त!

सुनो! मार्च के अंधेरे में
कितनी धीमी लेकिन कितनी
तरल है यह आवाज

क्‍या तुम्‍हारा मन नहीं चाहता
कि जल्‍दी-जल्‍दी चप्‍पल में पांव डालकर
कमीज के बटन लगाते निकल जाओ
इस आवाज के पीछे?