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नींद-1 / प्रदीप जिलवाने
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नींद अपने लिए जगह तलाश ही लेती है।
बया सुस्ता लेती है टहनी पर बैठे-बैठे
घड़ी दो घड़ी और हो जाती है फुर्रर्र
धूप पहाड़ों से उतरते ही
मैदानों की गोद में जाकर हो जाती है ढेर
हवा तो समन्दर की लहरों पर
खेलते-खेलते ही मारने लगती है झपकियाँ
चाँदनी जहाँ भी पाती है खाली जगह
अपना बिस्तर लगा लेती है
मछलियाँ भी तैरते-तैरते
सोने का हुनर जानती हैं
नींद के लिए जरूरी नहीं
मखमली गद्दे
वातानुकूलित कमरों की अनिवार्यता
गर्म देह का स्पर्श
नींद अपने लिए जगह तलाश ही लेती है
जहाँ भी हो ज़रा-सी सम्भावना।