हलाहल / हरिवंशराय बच्चन
रचनाकार | हरिवंशराय बच्चन |
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प्रकाशक | |
वर्ष | |
भाषा | हिन्दी |
विषय | कविता |
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विविध |
जगत-घट को विष से कर पूर्ण
किया जिन हाथों ने तैयार,
लगाया उसके मुख पर, नारि,
तुम्हारे अधरों का मधु सार,
- नहीं तो देता कब का देता तोड़
- पुरुष-विष-घट यह ठोकर मार,
- इसी मधु को लेने को स्वाद
- हलाहल पी जाता संसार!
जगत-घट, तुझको दूँ यदि फोड़
प्रलय हो जाएगा तत्काल,
मगर सुमदिर, सुंदरि, सुकुमारि,
तुम्हारा आता मुझको ख्याल;
- न तुम होती, तो मानो ठीक,
- मिटा देता मैं अपनी प्यास,
- वासना है मेरी विकराल,
- अधिक पर, अपने पर विश्वास!
हिचकते औ' होते भयभीत
सुरा को जो करते स्वीकार,
उन्हें वह मस्ती का उपहार
हलाहल बनकर देता मार;
- मगर जो उत्सुक-मन, झुक-झूम
- हलाहल पी जाते सह्लाद,
- उन्हें इस विष में होता प्राप्त
- अमर मदिरा का मादक स्वाद।
हुई थी मदिरा मुझको प्राप्त
नहीं, पर, थी वह भेंट, न दान,
अमृत भी मुझको अस्वीकार
अगर कुंठित हो मेरा मान;
- दृगों में मोती की निधि खोल
- चुकाया था मधुकण का मोल,
- हलाहल यदि आया है यदि पास
- हृदय का लोहू दूँगा तोल!
कि जीवन आशा का उल्लास,
कि जीवन आशा का उपहास,
कि जीवन आशामय उद्गार,
कि जीवन आशाहीन पुकार,
- दिवा-निशि की सीमा पर बैठ
- निकालूँ भी तो क्या परिणाम,
- विहँसता आता है हर प्रात,
- बिलखती जाती है हर शाम!
जगत है चक्की एक विराट
पाट दो जिसके दीर्घाकार-
गगन जिसका ऊपर फैलाव
अवनि जिसका नीचे विस्तार;
- नहीं इसमें पड़ने का खेद,
- मुझे तो यह करता हैरान,
- कि घिसता है यह यंत्र महान
- कि पिसता है यह लघु इंसान!
रहे गुंजित सब दिन, सब काल
नहीं ऐसा कोई भी राग,
रहे जगती सब दिन सब काल
नहीं ऐसी कोई भी आग,
- गगन का तेजोपुंज, विशाल,
- जगत के जीवन का आधार
- असीमित नभ मंडल के बीच
- सूर्य बुझता-सा एक चिराग।
नहीं है यह मानव का हार
कि दुनिया यह करता प्रस्थान,
नहीं है दुनिया में वह तत्व
कि जिसमें मिल जाए इंसान,
- पड़ी है इस पृथ्वी पर हर कब्र,
- चिता की भूभल का हर ढेर,
- कड़ी ठोकर का एक निशान
- लगा जो वह जाता मुँह फेर।
हलाहल और अमिय, मद एक,
एक रस के ही तीनों नाम,
कहीं पर लगता है रतनार,
कहीं पर श्वेत, कहीं पर श्याम,
- हमारे पीने में कुछ भेद
- कि पड़ता झुक-झुक झुम,
- किसी का घुटता तन-मन-प्राण,
- अमर पद लेता कोई चूम।
सुरा पी थी मैंने दिन चार
उठा था इतने से ही ऊब,
नहीं रुचि ऐसी मुझको प्राप्त
सकूँ सब दिन मधुता में डूब,
- हलाहल से की है पहचान,
- लिया उसका आकर्षण मान,
- मगर उसका भी करके पान
- चाहता हूँ मैं जीवन-दान!
देखने को मुट्ठीभर धूलि
जिसे यदि फँको उड़ जाय,
अगर तूफ़ानों में पड़ जाय
अवनि-अम्बर के चक्कर खय,
- किन्तु दी किसने उसमें डाल
- चार साँसों में उसको बाँध,
- धरा को ठुकराने की शक्ति,
- गगन को दुलराने की साध!
उपेक्षित हो क्षिति के दिन रात
जिसे इसको करना था, प्यार,
कि जिसका होने से मृदु अंश
इसे था उसपर कुछ अधिकार,
- अहर्निश मेरा यह आश्चर्य
- कहाँ से पाकर बल विश्वास,
- बबूला मिट्टी का लघुकाय
- उठाए कंधे पर आकाश!
आसरा मत ऊपर का देख,
सहारा मत नीचे का माँग,
यही क्या कम तुझको वरदान
कि तेरे अंतस्तल में राग;
- राग से बाँधे चल आकाश,
- राग से बाँधे चल पाताल,
- धँसा चल अंधकार को भेद
- राग से साधे अपनी चाल!
कहीं मैं हो जाऊँ लयमान,
कहाँ लय होगा मेरा राग,
विषम हालाहल का भी पान
बढ़ाएगा ही मेरा आग,
- नहीं वह मिटने वाला राग
- जिसे लेकर चलती है आग,
- नहीं वह बुझने वाली आग
- उठाती चलती है जो राग!
और यह मिट्टी है हैरान
देखकर तेरे अमित प्रयोग,
मिटाता तू इसको हरबार,
मिटाने का इसका तो ढोंग,
- अभी तो तेरी रुचि के योग्य
- नहीं इसका कोई आकार,
- अभी तो जाने कितनी बार
- मिटेगा बन-बनकर संसार!
पहुँच तेरे अधरों के पास
हलाहल काँप रहा है, देख,
मृत्यु के मुख के ऊपर दौड़
गई है सहसा भय की रेख,
- मरण था भय के अंदर व्याप्त,
- हुआ निर्भय तो विष निस्तत्त्व,
- स्वयं हो जाने को है सिद्ध
- हलाहल से तेरा अमरत्व!