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दरिंदा / भवानीप्रसाद मिश्र
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लेखक: भवानीप्रसाद मिश्र
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दरिंदा
आदमी की आवाज़ में
बोला
स्वागत में मैंने
अपना दरवाज़ा
खोला
और दरवाज़ा
खोलते ही समझा
कि देर हो गई
मानवता
थोड़ी बहुत जितनी भी थी
ढेर हो गई !