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ग़ज़ल-एक / मुकेश मानस
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कट गई पतंगें, खाली चरखड़ी
मुश्किलों का दौर है, मुश्किलें बड़ी
पानी है आँख में, बर्तन है खाली
ठंडे हुए चूल्हे में, राख है पड़ी
भाग दौड़ में उसे, कोई देखता नहीं
एक अंधेरे मोड़ पे, जिन्दगी खड़ी
वक्त चल रहा है, हम भी चल रहे हैं
ग़र्चे अपने हाथ में, है ठहरी घड़ी
तीरगी से हारकर, बार-बार जंग में
जाने किसके वास्ते, रौशनी लड़ी
रचनाकाल:1998