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निष्ठुर बादल / राधेश्याम बन्धु

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कैसे
बहुरूपिए निष्ठुर बादल,
रूई
के फाहों से पत्थर बादल?

सागुन भी सूख गए
प्रेम पत्र लिख-लिखकर,
चीड़ों की चर्चाएँ
मौन हुई थक-थककर।
पर तेरा
पिघला कब अन्तर बादल?

बेले की बाँह झुकी
स्वागत में उठ-उठकर,
चम्पे की चाह घटी
गन्धगीत रच-रचकर।
सूख रहा
सुधि का गुलमोहर बादल।

मकई की मुस्कानें,
अरहर की अगवानी,
आँगन की तुलसी भी
सूख रही बिन पानी।
आवारा
घूम रहे तस्कर बादल,
कैसे
बहुरूपिए निष्ठुर बादल?