भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रचनाएगी / हरीश भादानी
Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:54, 5 जुलाई 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरीश भादानी |संग्रह=शहरीले जंगल में / हरीश भादान…)
जाने क्या-क्या कर जाएगी
भले अभी तो आंखों को यह
पसरी-पसरी लगे
मगर यह रेत, रेत है
एक समंदर उफनाएगी
जाने क्या-क्या.....
अभी भले ही हुई धुएं सी
लगते-लगते हवा
यहीं हां यहीं यहां से
वहां-वहां तक अगियाएगी
जाने क्या-क्या.....
जाने कब से बर्फ़ गिरे है
सील गई हैं तहें
मगर लकड़ी है लकड़ी
सूरज पी-पी चिटखाएगी
जाने क्या-क्या.....
बरसे बरसे कोई मौसम
बुझी-बुझी सी लगे
मगर जगरे में चिनगी
पड़ी राख उठ ओटाएगी
जाने क्या-क्या.....
ठुंठ हुए पेड़ों पर लटकें
ऊंधे गुमसुम सभी
मगर पतझर की झाडूं
झाड़ किनारे रख जाएगी
जाने क्या-क्या.....
माटी नहीं रही है ऊसर
झरी कहीं से बूंद
हुई है बीजवती यह
हरियल मन फिर रचनाएगी
जाने क्या-क्या कर जाएगी