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कातरता / अजित कुमार
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गर्दन पर शिकंजे जब कसने लगे,
आँखों के गिर्द जब मँडराने लगे
गिद्ध
पीठ जब दोहरी हो
बोझ के नीचे पिसती गई,
कलाइयाँ चिटख़ उठीं
तब चाहा मैंने-
काश, मेरे भी पूरे तन पर
उगी होती नाख़ून की चौड़ी-सी पर्त
जो शंख की तरह
ढक लेती सब देह...
हुआ हूँ मैं अक्सर
घोंघे से भी अधिक
कातर !