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44 / हरीश भादानी

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खूबसूरत बहानों की
फसीलों में बन्दी हमारे दोस्त !
न रहते तुम हमारे गाँव
पर एक यह भी जिन्दगी तो देख जाते-
यह अष्टवक्राई हुई सीमा
यह खुरदरी धरती
ढलानों पर, चढ़ानों पर बसे ये घर
जिनकी बनावट,
विश्वकर्मा की कारीगरी से कम नहीं है,
अभावों के झरोखे
इस तरह काटे हुए हैं कि-
हर बदचलन हवा यहाँ आकर ठहरती
रिक्तताओं की बारादरी
हम मोड़ से खेंची गई है कि-
बंध्या सी त्यागी हुई
यह नंगी धूप यहीं आकर लाज ढँकती
एक ही
मीनार से परिचित हमारे दोस्त !
कुतुब की लाट से अधिक बूढ़े
अधिक ऊँचे
हमारे घर में बहुत गहरे से उठे
ये कर्ज के सौ-सौ मीनार देख जाते;
ये बड़े चौपाल
ये बड़े आंगन
मौसम की
हर बदतगीज़ी को बर्दास्त करते हैं,
गुलाबी मोर को,
सुहानी सांझ को नज़र न लग जाए कहीं
इसलिए घरों की चिमनियाँ
आकाश के मुँह पर धुँए के टीके लगाती हैं,
हमारी
भूलों के गवाहों की अपाहिज फौज
मोच खाई थालियों को पीट
रोटी राग गाती है
और हम खानाबदोश मालिक
यह आलम बदलने की
मौसम बदलने की
टकरा कर लौटी हुई आवाज़ पर
बहलते जा रहे हैं,
जीते जा रहे हैं;
सुनो ! घरों की ड्योढ़ियाँ इतनी बड़ी हैं
कि हम सरीखे
सैकड़ों हम दम चले ही जा रहे हैं,
एकाकर होते जा रहे हैं,
थोड़ी प्यास,
ओछी बरखा के लोभी हमारे दोस्त
हमारी भूख की
हमारी प्यास की
ज़िन्दादिली तो देख जाते !