भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

फिसल रही चांदनी / नागार्जुन

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


पीपल के पत्तों पर फिसल रही चांदनी

नालियों के भीगे हुए पेट पर, पास ही

जम रही, घुल रही, पिघल रही चांदनी

पिछवाड़े बोतल के टुकड़ों पर--

चमक रही, दमक रही, मचल रही चांदनी

दूर उधर, बुर्जों पर उछल रही चांदनी


आंगन में, दूबों पर गिर पड़ी--

अब मगर किस कदर संभल रही चांदनी

पिछवाड़े बोतल के टुकड़ों पर

नाच रही, कूद रही, उछल रही चांदनी

वो देखो, सामने

पीपल के पत्तों पर फिसल रही चांदनी


(१९७६ में रचित,'खिचड़ी विप्लव देखा हमने' नामक कविता-संग्रह से)